कहानी-घटना जो नासूर बन गई

छोटी सी घटना बड़ा महत्व रखती हैं। वातावरण को बदलने में सक्षम घटना तो हतप्रत भी कर देती हैं। अब आप ही देखिए ना- किसी गुंडे ने किसी आदमी को चाकू मार दिया और वह आदमी मरता नहीं तो लोग तो यही कहते है ना- वाह! चाकू खाकर भी जिंदा हैं।

क्या मानसिकता हो गई हमारी। वाह भाई, वाह! काम गलत होगा चलेगा। अमानवीय, हिंसक, अनैतिक होगा चलेगा। मगर होना ऐसा चाहिए जिसे हमारा मन स्वीकार कर सकें। एक घटना याद आ रही हैं। एक बार ट्रक में दुर्गा की मूर्ति आ रही थी। रास्ते में कंजरों ने ट्रक रुकवाया। यात्रियों को लूटा। माल की तलाश में गए तो उन्हें दुर्गा की मूर्ति दिखाई पड़ीं। मूर्ति क्या दिखाई पड़ी, उनका हृदय परिवर्तन हो गया ! उन्होंने लूट का माल वापस कर दिया और इस कार्य के लिए ड्राइवर आदि से माफी मांगी। आप कहेंगे ठीक है कौन सी खास बात हो गई। खास बात तो मैं अब बताऊंगा। कंजर जंगलों में गुम हो गए। थोड़ी देर बाद ड्राइवर साहब फरमाते है - साले लुटेरे है कि भक्त ! ऐसे तो कर लिया धंधा।

आप यही कह रहे हैं ना कि जिंदगी में ऐसे फोड़े बहुत से होते हैं। जी हां, ऐसे फोड़े तो बहुत होते हैं। उनमें से नासूर तो एक-दो ही बनते हैं। ऐसे नासूर जो हमेशा टीसते रहते हैं।

छोटा सा रेलवे स्टेशन। मीटर गेज लाइन। दिन भर में चार रेल और कुछ माल गाड़ियां स्टेशन से गुजर जाती हैं। रेल आती है, चली जाती हैं। मूंगफली, समोसे, सिगरेट वाले तब कुछ कमा लेते हैं। टिकट कलेक्टर भी निर्गम द्वार पर खड़ा हो जाता हैं। यात्री टिकट दे तो ले लेता है, नहीं दे तो कोई बात नहीं। कभी टिकट मांग भी लेता है, मगर सूरत देखकर। युवाओं से कभी टिकट नहीं मांगेगा। क्यों? क्योंकि उसे मालूम है कि उनके पास टिकट होता ही नहीं हैं। उनकी सरकार, उनकी रेल। टिकट किस बात का! कभी उसने टिकट मांग भी लिया तो उसे टिकट नहीं मिलेगा। गाल पर गर्मी से महसूस होंगी। हो सकता है दिन में सितारे भी दिखाई पड़ जाएं। बात आगे बढ़ी तो दंगा भी हो जाएं। जहां कालेज होंगे वहां इनकी संभावनाएं तो रहेगी ही। खैर छोड़िये, इस बात को।

शनिवार, रविवार या अन्य छुट्टियों के दिनों में छात्रों के कारण ट्रेनों में भीड़ बढ़ जाती हैं। उस दिन शायद शनिवार था। ट्रेन अपने निर्धारित समय से थोड़ी लेट थी। ट्रेन के दिखलाई पड़ते ही लड़के प्लेटफार्म पर फैल गए। एक लंबी सीटी मारती हुई ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई। छोटा सा स्टेशन। गाड़ी ज्यादा रुकती नहीं। सभी जल्दी-जल्दी डिब्बों में घुसने लगें।

"ओय, सोनू इधर आ। यात्रा अच्छी कटेगी।"

"ठीक है। आ रहा हूं।" कहकर सोनू नाम के उस लड़के ने अपना सामान पास खड़े जूनियर को थमाया। दौड़ पड़ा उस डिब्बे की ओर, जहां से उसे पुकारा गया था। डिब्बे में एक नजर डाली और बोल पड़ा- "वाह, मजेदार रहेगी यात्रा आज की।"

और यात्रा मजेदार रही भी! यात्रा मजेदार रहती क्यों नहीं। उस डिब्बे में एक लड़की बैठी थी। गोरा दूध जैसा उज्जवल रंग। तीखी नाक। हिरणी सी चपल आंखें। ऐसी लग रही थी मानो खजुराहो या अजंता की मूर्ति हों। आपका मन डोल गया, उसे देखे बिना ही। देखते तो...

"क्या चीज बनाई है भगवान ने!" एक लड़का बोला।

"मार डाला जालिम ने।" दूसरा सीने पर हाथ रख कर बोला।

"चुप रहो सब।" एक दादा से दिखाई पड़ने वाले लड़के ने कहा।

शायद वह सीनियर्स का भी सीनियर था, या दादा ही होगा। इस कारण लड़कों पर उसकी बुलंद आवाज का रौब छा गया। लड़की ने एक निगाह लड़कों पर डाली और फिर खिड़की के बाहर देखने लगी। डिब्बे में चुप्पी छा गई। थोड़ी देर बाद लड़कों ने आंखों ही आंखों में कुछ बात की।

"कहां तक जाएगी मैडम, आप?" दादा से लड़के ने लड़की से पूछा।

"थोड़ा हट कर बैठिए मिस्टर।" लड़की बोली और फिर खिड़की से बाहर देखने लगी।

"पिक्चर पिट गई।" एक लड़का बुदबुदाया।

डिब्बे में चुप्पी छा गई। उस वातावरण से निपटने के लिए छात्रों ने सिगरेट जलाई। खीज मिटाने के लिए धुआं लड़की की ओर भेजा जाने लगा। सिगरेट पीने के साथ ही उस दादा से लड़के ने कहीं से पढ़ा एक शेर सुनाया-

"छोटी सी बात पर क्या सुर्ख होकर भड़की हैं।

है तो फूल जैसी, पर शोला मिजाज लड़की हैं।"

"वाह गुरु, क्या चीज सुनाई। कुछ और भी सुनाओ।"

कोई स्टेशन आ गया था। गाड़ी रुकी। लड़के प्लेटफार्म पर उतरें। हर प्लेटफार्म पर उतरना और रेल चलने लगे तब चढ़ना ऐसी उनकी आदत थी। लड़की खिड़की से बाहर देखती रहीं।

गाड़ी चलने लगी। लोग डिब्बे में बैठने लगे। गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ा भी न था कि एक आदमी दौड़ता हुआ आया। उसके हाथ में छोटी बच्ची थी। दौड़ते हुए आदमी को दरवाजे पर खड़े लड़कों ने हाथ पकड़ कर ऊपर चढ़ाया।

दौड़ने के कारण आदमी थोड़ा हांप रहा था। मटमैले रंग का कुर्ता पजामा जो कभी सफेद रहा होगा, पहनें था। दुबला पतला शरीर। उभरी हुई हड्डियां। चालीस के आसपास उम्र। छोटी बच्ची अस्वस्थ लगती थी। गंदा चेहरा, कीचड़ भरी आंखें। बच्ची का सारा शरीर से चादर से लिपटा था। चेहरा ही दिखाई पड़ रहा था। चेहरा भी ऐसा नहीं था कि वात्सल्य उमड़ पड़ें। लड़की ने एक नजर आदमी और बच्ची पर डालीं और फिर बाहर देखने लगीं।

"मर जाता बुड्ढे। चलती चलती रेल में चढ़ना तेरे बस का नहीं।" एक लड़का बोला।

"मरना तो है ही, आज मरे या कल।" दूसरा बोला।

आदमी ने उनकी ओर देखा। फिर गर्दन झुका कर सांसों को व्यवस्थित करने लगा। लड़के, लड़की को परेशान करने के लिए विभिन्न तरीके काम में लाने लगें। पांच मिनट भी नहीं गुजरे होंगे कि टिकट चेकर आ गया। डिब्बे में बैठी सवारियों पर उसने एक निगाह डाली।

"नमस्ते अंकल"

"नमस्ते बेटा। घर जा रहे हों !" चेकर ने मुंह बनाते हुए कहा।

"जी हां, अंकल।"

चेकर ने एक निगाह फिर यात्रियों पर डाली। फटेहाल गंदे कपड़े पहने उस आदमी के पास गया। बोला- "टिकट बताओं "

"नहीं है, साहब। गाड़ी चलने वाली थी तब आया था। इस कारण टिकट नहीं ले पाया।"

"तो मैं क्या करूं?"

"टिकट बना दीजिए।"

"टिकट नहीं बनेगा। चार्ज लगेगा। डबल। निकालो चार सौ रुपए।"

"मैं तो इसी स्टेशन से चढ़ा हूं। रतलाम तक जाऊंगा। पैंतिस रुपए का ही टिकट तो हैं।"

"मैं नहीं जानता। जंक्शन से जंक्शन तक का डबल चार्ज लगेगा।" चेकर अब अफसरी रौब में बात करने लगा था।

"मेरे पास इतने पैसे नहीं है, मालिक। लड़की की तबीयत ज्यादा खराब हैं। डॉक्टर को बताना हैं। दवा-दारू में भी खर्चा होगा। हाथ जोड़ता हूं मैं आपके। इसी स्टेशन से चढ़ा हूं। पूछ लीजिए किसी से भी।"

"हां, हां यह यहीं से चढ़ा हैं।" एक दो यात्रियों ने अनुमोदन किया।

"मैं नहीं जानता। पैसे दो या जेल जाओ। चले आते है न जाने कहां-कहां से !"

"अंकल, छोड़ दीजिए। यहीं से चढ़ा हैं। यह बेचारा, किस्मत का मारा !" एक लड़का बोला। उसमें उसके स्वर में करुणा का नहीं, हास्य का पुट था।

"तुम अपना काम करो। हमें अपना काम करने दो।" चेकर क्रोधित होकर बोला। लड़के चुप हो गए।

निकाल पैसे साले, जेल नहीं जाना हो तो।"

आदमी घबरा गया। उसने अपनी जेब से दस दस के चार नोट निकाले और चेकर के सामने रख दिए- "इतने ही रुपए है मेरे पास।"

"मैं नहीं जानता। चार सौ रुपए निकालो या जेल जाओ।"

"मैं आपके पांव पकड़ता हूं, मालिक।"- कहने के साथ उस आदमी ने अपने हाथ चेकर के पांव की ओर बढ़ाएं।

" नहीं, पांव मत छुओ। तुम गरीब हो इसका मतलब यह तो नहीं कि ये भगवान हो गए।" डिब्बे में सुंदर सी लड़की के स्वर से सब स्तब्ध रह गए। आदमी ने अपनें हाथ खींच लिए।

लड़की ने पर्स खोला। सौ सौ के चार नोट निकालकर आदमी की ओर बढ़ाएं। कहा- "यह लो पैसे। दे दो इन्हें। लोगों को छूट और अधिकार क्या मिल जाते हैं, वे राक्षस बन जाते हैं।" क्रोध के कारण उसका चेहरा लाल हो गया था।

चेकर भौचक्का रह गया। उसने इस बारे में सोचा भी नहीं था। "अगले स्टेशन से टिकट ले लेना।"- कह कर वह आगे बढ़ गया।

उस दादा से लड़के के पास बैठे एक आदमी ने उसका कंधा थपथपाया। लड़के ने उसकी ओर देखा। आदमी ने आंखें उछाली। मानो पूछ रहा हो- "कहो, अब क्या हाल है !" लड़के ने सिर झुका लिया। अपनी सीट से उठा और दरवाजे के पास जाकर खड़ा हो गया। दूसरे लड़के भी वहां आ गए। स्टेशन आने पर वे सब उतर कर दूसरे डिब्बों में घुस गए।

कहां खो गए जनाब, आप ! लौट आइए इसी दुनिया में। अब तो विश्वास हुआ छोटी घटना के बड़े महत्व का।

अब एक छोटी सी घटना और घट जाए तो !

अब बचा ही क्या है, घटने को। आप यहीं कहना चाहते हैं ना!

अभी तो बहुत कुछ बचा है, हजूर। यदि यह घटना घट जाए तो आपका क्रोध मेरे ऊपर भी केंद्रित हो सकता हैं। यदि आपको कोई बतला दें कि नपुंसक सिद्ध होने वाले,अनुशासनहीन, अमानवीय, अनैतिक कर्म करने वाले, मुंह छुपा कर भागने वाले युवकों के झुंड में मैं भी था!

मगर इस बात को बतला ही कौन सकता है, मेरे अतिरिक्त।

और मैं, ऐसी बात क्यों बताऊंगा श्रीमान !

(प्रकाशित-साहित्य गुंजन मई-जुलाई 2022)

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